भारतीय ज्ञान परंपरा में राज्यशास्त्र का अभ्युदय और विकास (कौटिल्य मनु बौद्ध जैन)
Author(s): डॉ. विनी शर्माAbstract
भारतीय राज्यशास्त्र का विकास एक दीर्घकालिक और समृद्ध परंपरा में निहित है जिसमें राजनीति समाज और धर्म का घनिष्ठ संबंध है। राज्यशास्त्र के प्रमुख सिद्धांत भारतीय विचारकों द्वारा सामाजिक न्याय शासन की नीतियां और सत्ता के संचालन के आधार पर विकसित किए गए थे। इस परंपरा का अभ्युदय वैदिक काल से होता है और इसके विकास में विभिन्न दार्शनिक और धार्मिक परंपराओं का योगदान रहा है जैसे कि कौटिल्य मनु बौद्ध और जैन। कौटिल्य:- कौटिल्य का ‘अर्थशास्त्र’ भारतीय राज्यशास्त्र का एक प्रख्यात ग्रंथ है जिसमें शासन राजनीति और अर्थनीति के व्यापक सिद्धांत प्रतिपादित हैं। कौटिल्य ने राज्य को एक महत्वपूर्ण संस्था माना और उसे स्थिरता व सुरक्षा प्रदान करने के लिए कूटनीति सैन्य शक्ति और आर्थिक प्रबंधन पर बल दिया। उनके अनुसार राजा का मुख्य उद्देश्य प्रजा की सुरक्षा और समृद्धि सुनिश्चित करना है। उन्होंने *मंडल सिद्धांत* प्रस्तुत किया जिसमें पड़ोसी राज्यों के साथ गठबंधन और संघर्ष की नीति पर विचार किया गया है। मनु:- मनु का ‘मनुस्मृति’ राज्य समाज और धर्म के आपसी संबंधों पर आधारित है। मनु ने राज्य की संरचना को धार्मिक और नैतिक नियमों के आधार पर प्रस्तुत किया। उनका राज्यशास्त्र धर्म पर आधारित है जिसमें राजा को धर्मपालक और न्यायाधीश की भूमिका में देखा गया है। मनु के अनुसार राज्य का मुख्य उद्देश्य समाज में धर्म की स्थापना करना और सभी वर्गों के लिए न्याय सुनिश्चित करना है। बौद्ध और जैन परंपरा:- बौद्ध और जैन परंपराओं में राज्यशास्त्र का दृष्टिकोण अहिंसा और नैतिकता पर आधारित है। बौद्ध विचारधारा में राजा को धर्मानुसार शासन करना चाहिए और युद्ध की निंदा की जाती है। सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म को अपनाकर धम्म के आधार पर शासन किया जिसमें अहिंसा दया और प्रजा के कल्याण को प्राथमिकता दी गई। जैन राज्यशास्त्र में भी अहिंसा और सत्य पर आधारित शासन की वकालत की गई है। जैन परंपरा में राजा को प्रजा की सेवा में विनम्र और न्यायप्रिय होना चाहिए। इस प्रकार भारतीय राज्यशास्त्र में इन चार प्रमुख धाराओं ने शासन की नैतिकता शक्ति और समाज के कल्याण के सिद्धांतों को विकसित किया।